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आर्थिक स्तर पर हो जनगणना , केवल गरीबों को मिले आरक्षण और अवसर ..!

देश का लचीला संविधान कहता है कि सबको जीने का अधिकार है जिसके तहत 1980 से पहले दबे कुचले दलितों और आदिवासियों को आरक्षण देकर उनके उत्थान का काम किया गया ।  अब जब आरक्षण वर्तमान समय में अपना काम 70% पूर्ण कर चुका है तो इसे संशोधित करके आरक्षण का आधार केवल गरीबी रखा जाना चाहिए और तमाम जातियों के आरक्षण तत्काल प्रभाव से रद्द करते हुए आर्थिक स्तर पर जनगणना कराकर दबे कुचले गरीबों को इसका सीधा लाभ दिया जाना चाहिए ।संविधान का 103वां संशोधन के तहत गैर पिछड़ा एवं गैर एससी/ एसटी श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10 प्रतिशत तक आरक्षण देने की व्यवस्था की गई। दूसरे शब्दों में कहें तो इस संविधान संशोधन के माध्यम से कथित अगड़ी जातियों या सामान्य वर्ग के गरीब तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।बिहार में जातिगत सर्वेक्षण कराने का फ़ैसला पिछले साल जून में में हुआ था. इसके बाद इस साल 7 जनवरी को बिहार सरकार ने राज्य में सर्वे की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी.OBC के लिये 27% कोटा के समान पुनर्वितरण की जाँच के लिये गठित रोहिणी आयोग के अनुसार, ओबीसी आरक्षण के तहत लगभग 2,633 जातियांँ शामिल हैं। जिस परिवार की सकल वार्षिक आय 8 लाख रुपये से कम है, उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के रूप में माना गया है। आय में सभी स्रोतों यानी वेतन, कृषि, व्यवसाय, पेशे आदि से आय भी शामिल होगी। 5 एकड़ से अधिक कृषि भूमि। 1000 वर्ग फुट और उससे अधिक का आवासीय भूखंड। हालाँकि 1992 से केंद्र की आरक्षण नीति इस बात पर ध्यान नहीं देती है कि OBC के भीतर अत्यंत पिछड़ी जातियों की एक अलग श्रेणी मौजूद है, जो अभी भी हाशिये पर हैं।  जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत नियमित जनसंख्या जनगणना की जाती है। इस अधिनियम के अनुसार, सरकार को व्यक्ति की व्यक्तिगत जानकारी को गोपनीय रखना चाहिए। इसके अलावा नियमित जनसंख्या जनगणना का उद्देश्य सिंहावलोकन प्रदान करना है, यह किसी विशेष व्यक्ति / परिवार से संबंधित नहीं है। संक्षेप में जनसंख्या जनगणना में दिया गया व्यक्तिगत डेटा गोपनीय होता है। इसके विपरीत सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (SECC) में दी गई सभी व्यक्तिगत जानकारी सरकारी विभागों द्वारा परिवारों को लाभ प्रदान करने और/या प्रतिबंधित करने के लिए उपयोग के लिए खुली है। इसके लिए परिवारों, पंचायतों और ग्राम सभा के साथ पारदर्शी तरीके से साझा किए जाने वाले परिवारों के प्रगणकों, सत्यापनकर्ताओं और राज्य सरकार के पर्यवेक्षकों द्वारा तैयार किए गए सामाजिक आर्थिक प्रोफ़ाइल के सत्यापन के अधिकार की आवश्यकता थी। इससे एसईसीसी 2011 की प्रक्रिया में मध्य मार्ग परिवर्तन हुआ जिसे नवंबर 2012 में एसईसीसी सूची के प्रारूप के प्रकाशन के बाद एक पूर्व-निर्धारित प्रक्रिया के तहत शिकायतों/आपत्तियों की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी। तदनुसार, सभी प्रकाशित ड्राफ्ट जिला सूचियों को पंचायत के समक्ष सार्वजनिक जांच के लिए रखा गया था और जाति/जनजाति/धर्म के नामों को छोड़कर ग्राम सभा में प्रदर्शित किया गया था। इसके बाद 45-82 दिनों के भीतर नामित अधिकारियों द्वारा शिकायतों/आपत्तियों की जांच की जानी थी। हालाँकि, इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप काफी समय बीत गया क्योंकि 17.97 करोड़ में से 1.41 करोड़ से अधिक परिवारों ने आपत्तियाँ उठाईं, जिससे कुछ मामलों में 485 दिनों से अधिक का समय बीत गया। चूंकि अब 100% परिवारों की वैध जानकारी उपलब्ध है, दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया । इसके दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उप-जाति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़ी जानकारियाँ जुटाई जाएँगी । बिहार में किए जा रहे जातिगत सर्वे को चुनौती देने के लिए एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी जिस पर शुक्रवार (20 जनवरी) को सुनवाई हुई ।  इस जनहित याचिका में बिहार में किए जा रहे जातिगत सर्वे को रद्द करने की मांग की गई  थी जो जायज है । अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया । आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया।भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई।

               जनगणना का आयोजन सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय जनसंख्या से संबंधित आँकड़े प्राप्त करने, संसाधनों तक पहुँचने, सामाजिक परिवर्तन, परिसीमन से संबंधित आँकड़े आदि का उपयोग करने के लिये किया जाता है। हालाँकि 1940 के दशक की शुरुआत में वर्ष 1941 की जनगणना के लिये भारत के जनगणना आयुक्त ‘डब्ल्यू. डब्ल्यू. एम. यीट्स’ ने कहा था कि जनगणना एक बड़ी, बेहद मज़बूत अवधारणा है लेकिन विशेष जाँच के लिये यह एक अनुपयुक्त साधन है।  जनगणना वर्ष 1931 के बाद वर्ष 2011 में इसे पहली बार आयोजित किया गया था। जिसका  का आशय ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक भारतीय परिवार की निम्नलिखित स्थितियों के बारे में पता करना रहा ।आर्थिक स्थिति पता करना ताकि केंद्र और राज्य के अधिकारियों को वंचित वर्गों के क्रमचयी और संचयी संकेतकों की एक शृंखला प्राप्त करने तथा उन्हें इसमें शामिल करने की अनुमति दी जा सके, जिसका उपयोग प्रत्येक प्राधिकरण द्वारा एक गरीब या वंचित व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये किया जा सकता है।  इसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति से उसका विशिष्ट जातिगत नाम पूछना है, जिससे सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने में आसानी हो कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से सबसे खराब स्थिति में थे और कौन बेहतर थे। समाज का यह कमजोर वर्ग ,पिछड़ा ,  वंचित वर्ग आज एक सम्मानपूर्वक जीवन जीने की ओर   अग्रसर हो पाया है। इन्हें यह सम्मान पूर्वक जीवन जीने   का अधिकार भारत के संविधान ने गारन्टी के रूप में प्रदान किया है। जैसा कि अनुच्छेद -15 व 16 में उपबंधित है। अनुच्छेद – 15(1) के अनुसार राज्य इन विषयों पर जैसे – जाति ,लिंग ,जन्म स्थान ,धर्म आदि  पर समाज में भेदभाव नहीं करेगा पर राजनीति में सरकारें वोट बैंक के लालच में कुछ खास जातियों को अतिरिक्त लाभ दे रही । लेकिन इन समाज के दबे कुचले ,पिछड़े ,कमजोर वर्गो के लिए उपबंध कर सकता है। अर्थात अनुच्छेद – 15(1)  एक सामान्य अवधारणा है ,जो संविधान की मूलभूत संरचना को दर्शाता है। इसके साथ ही अनुच्छेद – 15 के शेष उपबंध इस समाज के ,इस तबके के उत्थान के लिए अनैक प्रकार से संवैधानिक व्यवस्था करते है। 60 और 70 के दशक के भीतर यह संवैधानिक  उपबंध केवल अनुसूचित जाति -जनजाति के लिए ही लागू किये गये थे ,लेकिन मण्डल   कमीशन की रिपोर्ट और इन्द्रा साहनी के वाद के बाद उच्चतम न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी यह   उपबंध का रास्ता सुगम कर दिया था जो वर्तमान समय में घातक सिद्ध हो रहा । अनुच्छेद – 15(4) और  15(5) के अनुसार इन वर्गो के उत्थान के लिए स्पष्ट रूप से बनाये गये है ,जिसके द्वारा इन वर्गो की वर्तमान स्थिति सुधर चुकी है । अब सवर्ण में भी आर्थिक रूप से कमजोर लोगो को एक सम्मान पूर्वक जीवन जीने की स्थिति आरक्षण द्वारा बननी चाहिए । समाज में विशेष रूप से इनको भी मान सम्मान मिलना चाहिए। जातिगत जनगणना न कराकर आर्थिक जनगणना कराकर संविधान संशोधन के द्वारा जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों और दलितों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके , सामाजिक प्रावधान के तहत देश की प्रगति के लिए राज्य द्वारा संविधान प्रस्ताव लाया जाना चाहिए।

                — पंकज कुमार मिश्रा मीडिया पैनलिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर।

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