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सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के आगे दहाड़ता  सिंह …!

नए संसद भवन से जिस अशोक स्तम्भ का प्रधानमंत्री मोदी ने उद्घाटन किया उसका आकार और प्रस्तुति मूल अशोक स्तम्भ से जुदा दिखाई देने का दावा किया जा रहा है । मन में प्रश्न उठा आख़िर अशोक स्तम्भ के मूल स्वरूप में परिवर्तन क्यों  किया गया ?आख़िर क्या उद्देश है इस तरह राष्ट्रीय चिन्ह के आकार और भावभंगिमा में परिवर्तन का ? क्या ये हुक्मरानों ने जानबूझकर किया है ? या इसको बनाने वाले कलाकारों द्वारा भूलवश ऐसा हुआ है ? अगर ये भूलवश हुआ है तो  इस पर सरकारी बयान  किया जाना चाहिए और अगर यह जानबूझकर किया गया  है तो बिना सोचे समझे सेक्युलरों के पेट में दर्द क्यों उठने लगा ! वो धमकी दे रहे कि परिणाम बहुत ख़तरनाक होने की सम्भावना है । असमता को फैलाने वाले मनुवादी पुष्यमित्र शुंग ने कभी समतामूलक बौद्ध धर्म का नाश पूरी ताक़त के साथ किया था और अशोक स्तम्भ भी उसी समय के बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है वह आज भी हमारे देश की पहचान है  । वैसे अशोक स्तम्भ पर बना  शेर दहाड़ेगा नहीं तो क्या भीगी बिल्ली बना म्याऊँ करेगा क्या? ये हंगामा डीडी लोग्स ने तो नहीं मचाया, कि क्यूट शेर के दांत क्यों दिखाए? डीडी लोग्स को दहाड़ता शेर नहीं पसंद है रे बाबा ।  रेनबो विदआउट सैफ्रोन, पसंद है । सोशल मीडिया पर वायरल दोनों अशोक स्तम्भों को ध्यान से देखें। पहले वाला स्वतंत्रता के ७५ वर्षों तक दृष्टिगोचर होता रहा है जिसमें शेर; शेर कम बिल्ली अधिक लगते थे। अब दूसरे अशोक स्तम्भ को देखें। इसमें शेरों को उनके वास्तविक रूप में दिखाया गया है जिससे दुनिया डरती है। शेर का जो कर्म है, जो छवि है वही दिखाई जाना चाहिये। इसका सीधा तात्पर्य है, भारत अब शेर की भाँति किसी से डरने, दबने वाला नहीं है। भारत अब दहाड़ेगा भी, डरायेगा भी और दुनिया पर राज भी करेगा।  राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह को ऐसा होना चाहिये जो राष्ट्र की अनुभूति को प्रदर्शित करे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रतीक चिन्ह में बदलाव हुआ है तो भरोसा रखिये- छवि में, कर्म में, सोच में और शक्ति में भी बदलाव होगा। अशोक स्तंभ का चार शेरों वाला स्तंभ भारत के राष्ट्रीय चिह्न के रूप में विख्यात है। पर आज जिस राष्ट्रीय चिह्न के नाम पर चार शेरो वाले प्रतीक का प्रधानमंत्री जी ने उद्घाटन किया है, उसके शेरों के भाव और अशोक स्तंभ सारनाथ के शेरों के भाव से अलग दिख रहे हैं। शेरों के शरीर भी मूल स्तंभ के शेरों से अलग और बेडौल हैं, साथ ही उनके मुंह अधिक खुले हैं। मूल स्तंभ के शेरों में जो गरिमा, भव्यता और सिंहत्व, अकारण ही लोगों की नजर खींच लेता है वह इस नए बने प्रतीक में नहीं है। या तो इस प्रतीक को पत्थरों या जैसा की कहा जा रहा है यह कांस्य में है तो इसको गढ़ने वाले मूर्तिकार, अशोक स्तंभ सारनाथ के चार शेरों के भाव को समझ नहीं पाए या वे उन्हें इस प्रतिमा में उतार नहीं पाए। मूर्तिकला केवल पत्थरों, कांस्य, या किसी भी धातु को तराशना या उसे गढ़ना ही नहीं होती है बल्कि वह, प्रतिमा में, एक प्रकार से जान डाल देना भी होता है। सारनाथ म्यूजियम में जो मित्र, घूमने गए हैं, वे यह भलीभांति जानते हैं कि, म्यूजियम के मुख्य हॉल के बीच में रखा गया चार शेरो वाला भव्य स्तंभ, न केवल अपनी विलक्षण पॉलिश के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि भव्यता, राजत्व, गरिमा और मूर्तिकला का एक अनुपम उदाहरण भी है। साथ ही, अब तो, वह देश का मुख्य प्रतीक भी है। राष्ट्रीय चिह्न को जस का तस ही उतारा जाना चाहिए यह मानना सही है किन्तु वास्तविक स्वरूप हमारे संविधान और विकास से वर्णित होना चाहिए  । बिलकुल उसी तरह जैसा कि संविधान ने उसे मान्यता दी है। राष्ट्रीय चिह्न के स्वरूप, हावभाव और उसके अनुपात में कोई भी परिवर्तन, उसका विकृतिकरण करना हुआ, और, राष्ट्रीय चिह्न का विकृतिकरण, एक दंडनीय अपराध भी है पर अगर देश के विकास का प्रतिक है तो इसे स्वीकार करना चाहिए । दो तस्वीरों पर कल से सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हो रही है। चर्चा की वजह, सेंट्रल विस्टा अचानक उभरे अशोक स्तंभ की प्रतिलिपि की खामियों को लेकर हो रही है। दरअसल हममें से अधिकांश कभी भी सेंट्रल विस्टा के अंदर तो क्या, 2 किमी की रेंज में भी शायद ही कभी पहुंच सकेंगे। हमने पुराना संसद भवन भी नहीं देखा और राष्ट्रपति भवन भी। यह तस्वीर भी इसलिए नजर आई क्योंकि हमारे यशस्वी प्रधान का हर मूव एक इवेंट होता है और हर इवेंट एक खबर। बहरहाल अगर में कलाकृति पर बात करूं तो मैं कोई कला क्रिटिक नहीं हूं। बगैर स्केल के,कागज़ पर पेंसिल से एक दो लाइन भी सीधी नहीं खींच सकता हूं।लेकिन मैं कला प्रेमी हूं। पत्थरों की आकृतियां,मस्जिदों के मिनारे,नदियों के घाट, प्राचीन किले , महलों संग्रहालयों में रखी पुरातन वस्तुएं मुझे अत्यंत लुभाती हैं। मैं उन्हें दिल से निहारता हूं। मैंने अजंता,एलोरा,खजुराहो,ताजमहल,मीनाक्षी टेंपल,हरिद्वार,ऋषिकेश की पौड़ीयां, जामा मस्जिद और खंडहरों को खूब देखा है। इनमें से अब तक सारी के सारी एक ही नज़र में इतनी भाती हैं कि इनसे नजर नहीं हटती। अजंता,एलोरा,खजुराहो की मूर्तियों की भाव भंगिमा देख यूं लगता है, मानो अभी बोल पड़ेंगी। उनमें दर्शाए एकशंस लाइव लगते हैं। जबकि अधिकतर कला कृतियां 1000 से 2000 वर्ष पुरानी हैं,जब छेनी हथौड़ों के सिवा शायद ही कोई औजार मौजूद होता होगा। यानी एक छैनी या हथौड़ा ज़ोर से पड़ा तो सब बर्बाद। इन दो मूर्तियों में अगर गौर से देखा जाए, तो एक पर नज़र टिकती है। देखने और निहारने का मन करता है। लगभग ढाई हज़ार साल पहले बने अशोक स्तंभ आपको आकर्षित करता है,अपनी ओर खींचता है। उसकी उकेरी लकीरों में आप डूब जाते हैं। दर्शाए जानवरों के चेहरे मोहरे से उनका शरीर समानुपति नजर आता है। शेरों की भावभंगिमा देखिए सौम्य और सुंदर है। उनके शरीर आकर्षक हैं। नीचे दौड़ता घोड़ा यूं लगता है कि दौड़ते हुए स्वस्थ घोड़े का डीएसएलआर मेगा पिक्सल कैमरे से खींचा फोटो  है। बैल भी जीवित नजर आता है। स्तंभ जिस पर रखा है, उस कृति में सिमीट्री देखिए । अब वर्तमान अशोक स्तंभ पर नजर डालिए, शेर जाग  गया है ।

अब सोक स्तंभ के घोड़े को देखिए।इसकी टांग में चोट नजर आती है। पूंछ उठाने का तरीका असली वाले से एकदम भिन्न है।जिस आधा पर ओरिजनल अशोक स्तंभ रखा है, उस की कॉपी करने के लिए तो शायद, उन कलाकारों को पुनः जीवित करना होगा। असल में, कलाकृतियां, इमारतें, संरचनाएं ,सड़के, बाग ,महल आदि शासक का प्रतिबिंब होती हैं। मौजूदा शासक या तो नकल करते हैं या नाम बदलते हैं। कुल मिलाकर यह ,जिंदादिली  से बनी एक ऊर्जावान  नकल है, जो सम्राट अशोक के स्तंभ के साथ सही न्याय है।सेंट्रलविस्टा के अशोक स्तंभ पर घमासान मचा है ।सेंट्रल विस्टा नए संसद भवन की छत पर  भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ की प्रतिमा का अनावरण किया है। अशोक स्तंभ की यह मूर्ति कांस्य धातु से बनाई गई है। इसकी ऊंचाई 6.5 मीटर है। इसका वजन 9500 किलो बताया जा रहा है। अशोक स्तंभ की इस मूर्ति को कई चरणों में बनाया गया है। जिसमें स्केचिंग, पॉलिसिंग सहित कई चरण शामिल हैं। इस मौके पर पीएम मोदी के साथ लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी भी मौजूद थे। निर्माणाधीन संसद भवन की छत पर बने अशोक के इस स्तंभ का निर्माण दो हजार से ज्यादा लोगों ने मिलकर किया है। संसद भवन की इस नई इमारत में 1224 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था होगी। बताया जा रहा है कि इस इमारत का निर्माण दिसंबर 2022 तक पूरा हो जाएगा।शीतकालीन सत्र तक नया संसद भवन बनकर तैयार हो जाएगा। निर्माणाधीन संसद भवन के ऊपर स्थापित किए गए अशोक स्तंभ का निर्माण औरंगाबाद के मूर्तिकार सुनील देवरे की नक्कासी पर तैयार किया गया है। सुनील देवरे जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स से स्वर्ण पदक विजेता हैं और उन्होंने अपने काम के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान हासिल की है। उनके पिता भी इसी संस्थान के पूर्व छात्र रहे हैं। इस प्रतिष्ठित काम के लिए उन्हें शॉर्टलिस्ट किया गया था। देवरे ने अपने पिता से मूर्तिकारी की प्रेरणा ली थी। देवरे के पिता ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जीर्णोद्धार विभाग में काम किया था।देवरे ने बताया कि अशोक स्तंभ को तैयार करने का काम टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को मिला था जिसने साल एक सर्वेक्षण किया था और उनके अनुभव और साख को देखते हुए उन्हें इस प्रतिष्ठित काम के लिए चुना गया था। सबसे पहले क्ले मॉडल तैयार करने में कलाकार को लगभग पांच का समय लग गया, जिसे मंजूरी मिलने से पहले सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट से जुड़े विशेषज्ञों ने जांच की थी। मिट्टी का मॉडल उनके औरंगाबाद स्थित स्टूडियो में तैयार किया गया था। वहींं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने पीएम मोदी के अशोक स्तंभ के अनावरण पर नाराजगी जताई है । सेक्युलरों के पेट में प्रचंड दर्द हो रहा और कह रहे कि सरकार के प्रमुख के रूप में नए संसद भवन के ऊपर राष्ट्रीय प्रतीक का अनावरण नहीं करना चाहिए था। लोकसभा का अध्यक्ष लोकसभा का प्रतिनिधित्व करता है जो सरकार के अधीनस्थ नहीं है। आपने सभी संवैधानिक मानदंडों का उल्लंघन किया है।’उनकी यह बात बिल्कुल गलत नही है। दूसरी ओर स्तंभ की अनुकृति को देखकर चारों तरफ सुगबुगाहट है कुछ मानसिक बीमार लोग खुलकर इसके विरोध में शामिल हैं।उनका कहना है मूर्तिकार ने इस कृति में उसकी मूलभावना का उपहास किया है सारनाथ की नकल पर यह बनाई हुई बिल्कुल भी नहीं लगती।सबसे ज्यादा आपत्ति सिंह के खुले ओजस्वी मुंह को लेकर है जो अशोक  महान की भावना से खिलवाड़ बता रहे जबकि अशोक महान खुद एक ओजश्वी सिंह  है।सिंह के डीलडाल को लेकर भी सवाल किए जा रहे हैं। जो रंग किया गया वह भी सारनाथ स्तंभ के अनुरूप नहीं है।लोग सोशल मीडिया पर मज़ाक में कह रहे हैं कि यह मोदी जी की सोच से मेल खाता है।खौफ का जो माहौल है वह इन सिहों की स्थिति से ही उपजा है। वामपंथियों को इससे पहले हमारे भगवान राम को भी जिनका धनुष कांधे पर टंगा होता था उसे ऊर्जा से तनी प्रत्यंचा में बदल दिया तो उसपर भी विरोध किया। पूरा देश  यह कह रहे हैं कि यह भारत की दुनिया में दहाड़ का प्रतीक है। वाकई इसे वर्तमान अशोक  स्तंभ कहना ही उचित होगा।संभव है मूर्तिकार ने मोदीजी के बदलाव को अपना आदर्श मानते हुए इसमें सुनियोजित ढंग से काम किया है। सेक्युलर चिल्ला रहे थे की  सरदार बल्लभ भाई की प्रतिमा के साथ खिलवाड़ हुई मूर्ति का चेहरा सरदार पटेल से मेल नहीं खाता है । अब वो  इतनी ऊंचाई से नज़र नहीं आता है और अब कह रहे कि ऐसा ही अशोक स्तंभ के साथ भी होगा। वहीं आश्चर्यजनक यह भी है कि जब बुद्ध के बहुसंख्यक अनुयायियों का देश श्रीलंका इस समय आसन्न का संकट में है तब अशोक स्तंभ का विरोध भारत में क्या जायज है ? क्या मोदी विरोध में अंधा होना जायज है ? बुद्ध और अशोक  स्तंभ का ब्राह्मण  पूजन आवश्यक है इसकी  ज़रूरत थी क्योंकि विश्व शांति में ब्राह्मणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है  । इस पूजा पाठ से बौद्ध धर्मावलंबियों में भी हर्ष  है। मांसाहार वाले कभी  बुद्ध को या  अनुयाई अशोक को  पसंद नहीं थे फिर भी उक्त मुद्दों पर  अधिक हंगामा करने वाले मांसाहारी है । वहीं वामपंथियों के अनुसार अशोकस्तंभ के शिल्प से छेड़छाड़ राष्ट्र का अपमान है चूंकि वह भारत का राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह है तो विकास के साथ उसमें ओजता जोड़ना एक सराहनीय कदम है । लेकिन क्या इतना सब होने के बावजूद हमारी बात पर अमल संभव हो सकता है।देवरे जी की टीम की सराहना होनी चाहिए , कि उन्होंने  उम्मीद से ज्यादा आगे का काम करके दिखाया है  ।

पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर।

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