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स्वार्थ निहित राष्ट्रवादियों से सावधान ..!

राष्ट्रवाद के निमित्त देश हित में सामाजिक  रंग और भावना कैसा है,कोई इसे हनुमान की तरह सीना फाड़कर नहीं दिखा सकता। राष्ट्रवादी होने का कोई गीत नहीं गाया जा सकता। राष्ट्रवाद अपने आप में एक जज्बा है, जूनून है जिसे मौक़ा मिलने पर पूरी ताक़त से दिखाया जाना चाहिए ना की पहले भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाने चाहिए और बाद में भारत जोड़ो यात्रा का ढोंग दिखाना चाहिए जैसा की कन्हैया कुमार जैसे छद्म भेषधारी कर रहे। ऐसे लोगो का जमकर विरोध होना चाहिए। असली राष्ट्रवाद का अर्थ है देश की अखंडता और सुरक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देना जैसे जब  पाकिस्तान के साथ बार बार हुए युद्ध। बंगलादेश का बनना, कश्मीर पर अभी तक आंच न आने देना, भारत की सीमाओं को सिकुड़ने ना देना। राष्ट्रवाद में धर्म का कोई रंग नहीं है। धर्म से राष्ट्रवाद को कोई ताकत भी नहीं है। केवल सीमाओं को मजबूत रखने भर को ही राष्ट्रवाद से जोड़ना हमारी संकीर्णता या अल्पज्ञानता का परिचय होगा। राष्ट्रवाद सही मायने में देश के अंदर से पैदा होता है ओर बडा होकर सीमा पर पहरा देता है। लेकिन आजकल अंदर से खोखला होता राष्ट्रवाद धर्म के कंधों पर बैठ गया है। सीमा का प्रहरी भी अंदर से सीमा पर जाता है, लेकिन जब अंदर से खोखला हो जाये तो सीमा का जवान भी कमजोर ही होता है। देश राष्ट्रवाद की ईंट है और इसमें जाति, धर्म, रंग, मजदूर, गरीब या अमीर का कोई रंग नहीं होता, बल्कि इन सबके मिलने और जुड़ने से ही राष्ट्रवाद बनता है। देश का निर्माण इसी के हाथों की ताकत है। किसी भी निर्माण के लिए धर्म का बंटवारा कर समाज को खंडित कर खडी की गई भीड़ से नहीं हो सकता। बल्कि हर हाथ की ताकत और उसकी आंखों के सपनों से देश बनता है। आजादी के ठीक बाद देश कुम्हार के घर की कच्ची ओर बिखरी मिट्टी की तरह था। आजादी से पहले की ताकत जिसमें सभी धर्म की ताकत थी ने सपने संजोए थे और उन सपनों को एक नेहरू के नाम के व्यक्ति का नैतृत्व मिला। मिट्टी को कुम्हार ने अपने शिल्पकारी हाथों से  कल्पनाओं के ढांचे में ढाल कर एक आकृति दी ओर उसी को दिशा बनाकर हम आगे बढ़े। उस शिल्पकार के बाद अनेकों और शिल्पकार आये ओर निर्माण करते गये। सभी ने अपने अपने जादू से, अपनी अपनी योग्यता से देश को नये नये रास्तों पर चलाया। एक शिल्पकार 2014 में अपनी कृत्रिम कल्पना को जादूगरी बता कर देश में आया और देश को मजबूत कर उन नकली ईंटों को खंडित करने लगा जिनको पूर्व के झंडाबरदारो ने झूठ के नकाब में लगाया था। तब इन जादूगरो को कोई जादू नहीं आया तो आरक्षण के रंगों को सड़कों पर ले आए, जाति,भाषा, वस्त्र, रंग, राज्य जो मिला, जैसा समझ आया को तबाह करता ओर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करते रहे । कुछ नहीं करने के कारण से ही नये नये आडंबर ओर ढकोसलों के सहारे खुद को मजबूत करने के षड़यंत्र रचते रहे और लंबे समय तक राज किया । देश बिखरने लगा, ईंटे हिलने लगी। जाति और मजहबों को सड़कों का श्रृंगार बना दिया गया, राष्ट्र का लिबास तिरंगे की बोलियां लगने लगी , हरा रंग इनके लिए राष्ट्रीय रंग हो गया , गरीब के राशन पर इसे चिपका दिया गया। बेईमानों ने इसे अपने छुपाने का एक साधन बना लिया। मनोरंजन के लिए पत्थर फेंके जाने लगे , जेएनयू  को आदर्श  दिखाया गया। हर घर टिकट बिकने लगा। जनता में गरीबी की होड़ पैदा की गई ताकि अपनी अज्ञानता को छुपाया जा सके। होड पैदा करने के लिए हरे रंग को फहराने और तिरंगे को न फहराने या न खरीदने वाले को तिरंगे का अपमान करने वालों का सम्मान हुआ । आज राष्ट्रवाद बदल गया है। आम आदमी को अपनी शान  के लिए तिरंगा उठाये रखना ही असली राष्ट्रवादी होना मान रहा जो गर्व की बात है । रोजगार के बिना टूटे हाथों में पहले जहां हरे रंग झंडा थमा दिया गया था ।  विकास की दौड़ में लंगडा हो चुके देश के मस्तक पर गूंगे अर्थशास्त्र का अंडा बांध विश्व मैराथन में दौडा दिया गया था। भूखे देश के पेट पर दादी के विकास का पुलिंदा बांधकर विकास होना दिखा रहे हैं। झूठे नारों को राष्ट्रगीत में तब्दील कर दिया गया था। शिल्पकार ने अपनी अज्ञानता को राष्ट्रध्वज में ढक कर छुपा लिया है। बस आज यही हमारा राष्ट्रवाद है। अब सब बदल रहा । लोगो की चेतना वापिस आ रही और एक संघ के गलत विरोध के कारण  सभी सनातनी एक जुट हो गए । ऐसे में भगवा ही सत्य है और भगवा ही राष्ट्रवाद है ऐसा मानकर लोगो ने देश की सत्ता भगवामय कर रखा है किंतु अब बढ़ती महंगाई के दृष्टिगत यह राष्ट्रवाद पुनः बदल सकता है । देश अपने सर्वोत्तम विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सके इसके लिए हम सबको जागरूक होना होगा ।         ___ पंकज कुमार मिश्रा मीडिया पैनलिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर।

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