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जीवन का आनँद होने न पाए मँद

(कविता मल्होत्रा)

दिशाहीन दौड़ मत दौड़ो
अपनों का हाथ मत छोड़ो
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जैसे-जैसे लॉकडाऊन खुलने लगा है, वैसे-वैसे मार-काट, चोरी-डकैती और आपसी भेदभाव के सर्प सर उठाने लगे हैं।कोरोना-काल के इतने बड़े बवंडर के बाद भी लोगों को अराधना का साफ आसमान दिखाई नहीं पड़ रहा है।
क्या दीप जला कर मंत्रोच्चारण करने से ही ईश्वर की अराधना संपूर्ण होती है?
कोई श्लोक, कोई आयत, कोई साखी, कोई प्रार्थना कभी मानवता के विरूद्ध जाने का सँदेशा नहीं देती। फिर सरहदों पर ये मानवता विरोधी जँग का एलान क्यूँ?
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क्या फ़र्क़ पड़ता है! ज़मीन का टुकड़ा,तेरा हो या मेरा हो
मजा तो तब है साथी जब, दिलों में उल्फत का बसेरा हो
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कहाँ किसी घर में कोई दीवार होती थी, सारा आँगन रिश्तों की ठिठोलियों से गुलज़ार रहता था।कभी किसी के अधर निजी सुख के ज़हर से नीले नहीं होते थे।निःस्वार्थ प्रेम की आरती समूचे वातावरण में गुँजित रहती थी।एैसा कौन सा वर्जित फल चख लिया मानवता ने जिससे हर दिल का पर्यावरण प्रदूषित हो गया है?
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शाँत चित्त से चिंतन हो तो, मानवता की चिड़िया चहके
हर सू बो दें गर प्रेम बीज,तो इँसानियत की नस्ल महके
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आज जब भ्रष्टाचार का पानी सर पर से निकल चुका है तो प्रकृति ने भी रूष्ट होकर समूची मानवता को फिर एक बार परस्पर प्रेम की डोर से बाँधने के लिए ये महामारी का प्रपँच रचा है।अब तो सावधान होकर अपने भटकाव को सही दिशा देने का वक्त आ गया है।
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कितना अच्छा हो अगर हर कोई अपनी ही दूषित सोचों का निंदक हो जाए !!
बाँध ले जो समूचे जग को, प्रीत की कोमल डोरी में,हर दिल वो चुंबक हो जाए !!
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अब भी समय है साथियों, समय रहते सँभल जाएँ।सब में रब बसता है, एक दूसरे के उत्थान में सहयोगी बनें और अपनों संग जीवन का आनँद उठाएँ
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कैसी गज़ब की ताक़त थी
अनदेखे विषाणु में
जो लाई थी क़रीब हमको

खुलते ही लॉकडाऊन फिर
शुरू ये दौड है कैसी
छुड़ाकर हाथ अपनों से
कर गई जो ग़रीब हमको

ये मेरा है वो तेरा है
मंदिर मस्जिद लापता
प्रतिमाओं का बसेरा है 

चाहत भी अब बाज़ारों में
बिकाऊ माल सी सजती
दिलों में नफ़रत का डेरा है

क्यूँ तिलमिलाई हर नज़र
नक़ाबपोश दुनिया में
रिश्तों की नैया डूबी है

खुले चेहरे सब पार लगे
सच्चे इश्क की हमदम
इब़ादत ही तो खूबी है

क्या रखा काबा काशी में
अगर मेरा कहा मानो तो
घर से ही पूजन कर लो

मुसाफिर खाना दो दिन का
उतर कर नम निगाहों में
रूह, वृँदावन  कर लो

मेरा दावा है हमदम
यात्रा चार धामों की
नहीं होगी अब तुमसे

मैं और तुम, हम होंगे
ज़रा सुर छेड़ कर देखो
मोहब्बत के तरन्नुम से

संघर्ष को विराम दो
तमन्नाओं को लगाम दो
हुनर सीखो हवाओं से
रूखों के संग, बहने का

इधर उधर भटकने की
ज़िद छोड़ दो अब तुम
पाओगे फिर मज़ा
धाराओं संग, बहने का

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