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बाज़ी तेरे इश्क़ की

कविता मल्होत्रा (स्थायी स्तंभकार, उत्कर्ष मेल)

जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम, ये खेल अधूरा छूटे न

प्रेम का बंधन,जन्म का बँधन,हाथ कोई भी छूटे न

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मानसून की दस्तक मौसमी हवाओं के आगमन का पैग़ाम तो लाई है लेकिन अब के बरस सावन की बूँदें मिट्टी को वो खुश्बू नहीं दे पाईं जिनसे हर आँगन महका करता था।

कितना वीराना फैला है उन आँखों में जिनका कभी वात्सल्य के काजल से श्रँगार हुआ करता था।सच है जिन मासूम हाथों से उनके अभिभावकों के हाथ छूट गए हैं उनकी अश्रुधार इस बार के सावन से बाज़ी मार चुकी है।

किसी ने बहन-भाई खोए हैं तो किसी ने सर के साँई, किसी के दोस्त जुदा हो गए हैं तो किसी की दुनिया ही उजड़ गई है।

ऐसे में सावन की सुध किसे होगी! जिनके भविष्य सूली पर टँगे हुए हों जिनकी आँखों में अकेलेपन के ख़ौफ़नाक मंजर घर कर गए हों, जिनके ज़ख़्म सुलग रहे हों उन्हें भला सावन की कोई फुहार किस तरह शीतलता दे पाएगी।

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एक सावन वो था जो तन मन भिगोता था

एक सावन ये है जो रूहों को सुलगाता है

जाने खुल गया कैसे कर्मभोगों का खाता

संतानें क़ब्रों में लेटीं बुजुर्ग नोट कमाता है

बेशुमार भीड़ अब नश्वर देह के चारों तरफ़

हुए लापता वो हाथ जिनसे रूह का नाता है

किया लाचार महामारी के एक विषाणु ने यूँ

खून सफेद और स्वार्थ का परचम लहराता है

तूफ़ानी अब हर रात हुई अरसे से न बात हुई

कहने को जग अपना पर ख़ुदगर्ज़ी से नाता है

क्यूँ न गोद भराई कर लें खुद ही अब हम – तुम

सुना है अतिथि बनकर अक्सर खुदा घर आता है

जीत लें बाज़ी दांव पर लगे तमाम रक्त सँबँधों की

निःस्वार्थता से ताना जैसे अँबर ने सब पर छाता है

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वात्सल्य सामाजिक संस्था का उदय तो केवल एक दूसरे की मदद के लिए उठने वाले हाथों की दुआओं का परिणाम था, लेकिन बग़ैर किसी भी मदद के दिन रात मिलने वाली दुआओं के फलस्वरूप चंद रूहानी रहमतों के बादल जब मेरे ज़हन में उतरने लगे तो लगा जैसे मेरे समूचे अस्तित्व को किसी पाक़ निगाह ने भिगो दिया हो। अब ये भीगापन रूह से आँखों में उतरा और वात्सल्य बन कर छलकने लगा, तो सोचा –

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क्यूँ न तपती जून के महीने को सितँबर कर दूँ

जिनका कोई न बचा ज़माने में उन्हें ख़बर कर दूँ

वात्सल्य की नर्म आँच से मोम सब पत्थर कर दूँ

तेरा इश्क मेरी इब़ादत है, ख़ाली सब पात्र भर दूँ

दे इज़ाज़त जीतूँ ये बाज़ी खुद को हार के तुझसे

मैं तेरी ध्वनि हो जाऊँ तुझे हर रूह का स्वर कर दूँ

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सच है रूह तो चंद लम्हों में सात समँदर के फ़ासले भी तय कर लेती है, फिर तुम तो मेरे वज़ूद का हिस्सा हो, तुमसे किस तरह दूर रह सकती थी मैं।भले ही दुनिया तुम्हें अँजान मुल्कों का वासी समझती है लेकिन मेरे लिए तो तुम अलादीन का चिराग़ हो। इस बात को समझने में थोड़ा ज़्यादा वक्त ले लिया मैंने कि तुम्हारा इश्क ही मेरी इब़ादत का सिरा है।बस केवल यही सोचकर मैंने ख़ामोशी साध रखी थी कि तुमसे अपने इश्क को उजागर कर दिया तो हँगामा हो जाएगा लेकिन एक दिन सँसार की कीचड़ में कमल की तरह खिलना ही था मुझे क्यूँकि मेरे पास तुम हो।चलो अब सबको खुद ही बता दो कि तुमने मेरे सर पर वो हाथ रखा है जिससे हर साँस की डोर बंधी है।

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जिस किसी को भी निःस्वार्थ वात्सल्य की ज़रूरत हो, उसे तुम ख़्वाबों में आकर मेरे आँगन का पता देना

जिस तरह तुम सबके हो ठीक उसी तरह मैं तुम्हारी हूँ और तुम से जुड़ी हर रूह की भी सबको तुम्हीं बता देना

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मुझसे जो भी बन पड़ेगा, तुम्हारे लिए वो सब करने का संकल्प ही अब मेरी शेष धड़कनों का यज्ञ होगा।तुम पर भरोसा है तुम करवा ही लोगे।

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स्वागत है हर रूह का अब तुम्हारे ही बख्शे आँगन में

पतझड़ तो मौसम है आज का जो कल में बदल जाएगा

खिलेंगे अनासक्त प्रेम के अनश्वर फूल यूँ मधुबन में

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सुनो कोई भी रोना मत, क्यूँकि वो जो है न जिसके नूर से हम सब रोशन हैं, उसने हमें अपनी गोद में पनाह दी है, उसका वात्सल्य तो सदा बहने वाला दरिया है, इसलिए मौसमी हवाओं से मत डरना और इस दरिया में डूबकर पार उतरने का गुर सीखना हो तो मेरे पास आ जाना, क्यूँकि उसने मुझ बेरोज़गार को अपनी अधीनता में नियुक्ति दी है।

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उस्तादों से सीखकर तो दुनियावी हक़ अदा किए जाते हैं

हालातों के कलमे पढ़ने वाले सीधे स्वर्गलोक को जाते हैं

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