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चलाचली

जीवन की नाव सरक रही है

 सासों की ईंधन पा धीरे-धीरे;

  कभी गहरे जा खेले झिझरी

   खाते हिचकोले नदिया तीरे।

नपी तुली भरी हुई है ईंधन

 जाने कब उखड़ जाये सांस;

  उड़े प्राण पखेरु तज काया

   दिखे न दूर तक कोई आश।

नाप तौल कर व्यय करना

 व्यर्थ का न करना भटकन;

  बहुत दूर है लक्ष्य तुम्हारा

   पथ में ढ़ेरो बाधा अटकन।

नवल प्राण आयाम देने को

 फेरो मनका माला राम-राम;

  कल की चिंता प्रभु पर डाल

    करते रहो सत्कर्म निष्काम।

बन निर्मोही करना प्रस्थान

 जिस दिन आ जाये बुलावा;

  अंतिम मंजिल है दूर तुम्हारी

   बढ़ छोड़ कर छिद्र छलावा।

चला चली की बेला आई है

 अब और नहीं नींव ईंट गारा;

  पंचभूत की थाती वापस कर

   सागर से मिलने बह ले धारा।

-अंजनीकुमार’सुधाकर’

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