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कितनी कड़वी हैं सच्चाइयाँ

कितनी कड़वी हैं सच्चाइयाँ

गिर रहीं नीचे ऊँचाइयाँ

कोयलों के बाइक कंठस्वर

चढ़ी नीलाम अमराइयाँ

 बद हुये मौसमों के चलन

हुयीं गुमराह पुरवाइयाँ

 दिन ढले घर में अहसास के

स्यापा करती हैं तनहाइयाँ

आदमी कद में बकमतर हुआ

बढ़ गयीं उसकी परछाइयाँ

गिरना तय है जिधर जायेंगे

उधर खंदक इधर खाइयाँ

होश आयेगा ‘महरूम’ जब

हाथ आयेंगी रुसवाइयाँ देवेन्द्र कुमार पाठक ‘महरूम’

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