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दीपावली

            ” माँ आज भी ज्यादा दीये नही बिके ।”ठेले को किनारे लगाते हुए अशोक उदास होकर बोला ।

    माँ ने उसे सांत्वना देते हुए कहा,” अरे कल बिक जायेंगे,क्यों परेशान हो रहा है ? देख मेरे भी दीये ज्यादा नहीं बिके हैं।”माँ बेटे को समझा

तो रही थी पर मन ही मन बुरे ख्याल भी मन में आ रहे थे । अगर दीये नहीं बिके तो इतने सारे दीये बेकार हो जायेंगे । यह भी दीवाली फीकी पड़ जायेगी ।

         बेटा हाथपैर धोकर खाना खा ले ,आज तो यही मूली की सब्जी है,सब्जियों के दाम तो मानों आकाश को छू रहे हैं ।

       अशोक वैसे तो हाईस्कूल पास था लेकिन घर की परेशानियों के कारण वह आगे नहीं पढ़ सका । वह ठेले पर सब्जी बैचने का काम करता धा ।त्योहारों में त्योहार के अनुसार अन्य सामान भी बेच लेता था ।

      बिजली के झालरों और चाइनीजं बल्बों ने दीये का कारोबार ही बिगाड़कर रख दिया था ।

लोग अपनी सभ्यता संस्कृति भूलकर पाश्चात्य वस्तुओं की ओर अधिक झुक रहे हैं । कभी कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को बेचकर बहुत कुछ

कमा लेते थे ,पर अब तो जैसे उनका कारोबार ही ठप्प पड़ गया है ।

         गाँव हो या शहर सभी विदेशी वस्तुओं की ओर ही ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं, वास्तव में तो दीपावली ज्योतिपर्व है,दीपों का त्योहार।

 उजियाला होना चाहिए पर मिट्टी के दीपों का होना चाहिए ताकि मिट्टी से दीपक बनाने वालों

का भी कोई नुकसान न हो और हमारी पुरातन परम्परा भी खंडित न हो ।

          ” अरे सोनू उठ सवेरा हो गया ,आज जल्दी ही बाजार भी जाना है ।” माँ ने सोनू को आवाज लगायी ।

            “हाँ माँ उठ रहा हूँ ।” कहकर सोनू भी आँख मीचते उठ गया ।

       दोनों ने जल्दी जल्दी घर के काम निपटाये थोड़ा बहुत नाश्ता किया और बाजार की ओर चल दिये । आज फिर दोनों हीमाँ बेटे बाजार में इस उम्मीद के साथ जाने केलिए तैयार हो रहे थे कि शायद आज उनके दीये ज्यादा से ज्यादा बिक जायें ,ताकि वे भी मना सकें अपनी शुभ दीपावली ।

डॉ.सरला सिंह “स्निग्धा”

दिल्ली

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