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चिन्तन शिविर से  उपजे सवाल

राजनीतिक सफरनामा

                                                                                                   कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

मई की तपती दुपहरी और राजस्थान की मरू भूमि पर कांग्रेस का चिन्तन शिविर आयोजित किया । कांग्रेस को वैसे भी चिन्ता और चिन्तन दोनों की आवश्यकता तो है । उनके अपने ही सदस्यों ने चिन्ता व्यक्त की और हाईकमान ने चिन्तन शिविर लगा दिया ‘‘आओ हम मिलकर चिन्तन करें’’ । आम व्यक्ति सोचता है कि आखिर नेता ऐसे शिविरांे में चिन्ता और चिन्तन करते कैसे होंगे । आम आदमी जबचिन्तित होता है तो वह अपने माथे पर हाथ रखकर उदास चेहरा लिए कुछ सोचता सा दिखाई देता है पर नेता जब चिन्तित होते हैं तब वे माथे पर हाथ रखकर चिन्तन नहीं करते । वे साफ धुले-धुलाए कुरता पायजामा पहनकर ए.सी लगे शामियाने में बैठकर सोचते हैं कि आखिर उन्हें चिन्तन करना क्या है । वे पहले से सोचे हुए विषय पर न तो चिन्तन करते हैं और न ही चिन्ता । यदि करते होते तो कांग्रेस के हर साल होने वाले चिन्तन शिविरों में से कम से कम यह तथ्य तो सामने आ ही चुके होते कि वे ‘‘कहां से कहां आ गए’’ । चिन्तिन शिविर राजनीतिक दलों का स्नेह सम्मेलन जैसा होता है । दूरदराज के नेताओं से मुलाकात हो जाती है और एक दूसरे की कुषलक्षेम पूछ ली जाती है । बाकी उनका मीडिया प्रभारी मीडिया को काल्पनिक स्टोरी गढ़ कर बता ही देता है कि इस शिविर से क्या-क्या नतीजे निकले हैं । कांग्रेस को चिन्तन और मनन शिविर की सख्त आवश्यकता है । पर वे आवश्यकता के अनुसार अपना काम कभी नहीं करते । पर फिर भी अंततः उन्होने चिन्तन शिविर का आयोजन कर लिया । आमजनता को कोई उत्सुकता है भी नहीं कि इस चिन्तन शिविर से क्या मिला । मध्यप्रदेश की सरकार को भी चिन्तन करने की आवश्यकता है । सुप्रीमकोर्ट ने प्रदेश के पंचायतों और नगरी चुनावों के लिए सख्त दिप्पणी कर दी है । दरअसल पूरा खेल ओबीसी आरक्षण को लेकर है । प्रदेश में दिसम्बर माह में ही पंचायत चुनावों की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी यहां तक कि प्रत्याशियों ने अपने नामांकन फार्म भी जमा कर दिए पर कोर्ट ने स्टे लगा दिया । ओबीसी आरक्षण नही था तो कांग्रेस कोर्ट चली गई । चुनाव प्रक्रिया निरस्त कर दी गई । अब जब न्यायालय ने अपनी सुनवाई पूरी की तो साफ और कड़े लहजे में प्रदेश सरकार को चेता दिया और प्रदेश चुनाव आयोग को कह दिया कि बगैर आरक्षण के ही चुनाव करा लो । इससे राजनीतिक माहौल गरमाना था सो गरमा ही गया । प्रदेश स्तर पर नगरीय और पंचायत चुनावों के अपने मायने होते हैं । यही कारण है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस और सत्तारूढ़ भाजपा के बीच तकरार प्रारंभ हो गई है । इतना तो तय है कि अब प्रदेश में ये चुनाव होगें ही पर इनमें ओबीसी को कैसे उपकृत किया जाए मंथन इस बिन्दु पर हो रहा है । मंथन ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर भी चल रहा है । कोर्ट इस मामले में सख्त रूख अपनाए हुए है । कोर्ट मस्जिद-मंदिर के मसले को हल कर देने की ठान चुकी है । इस कारण से ही तो सर्वे कराया जा रहा है ‘‘देख लो इसकी वास्तविकत क्या है’’ । यदि मंदिर है तो हिन्दुओं को बता दो और मस्जिद है तो विवाद को खत्म कर दो । कोर्ट सख्त है उसने सर्वे करने का आदेश दे ही दिया है इतनी कड़ाई के साथ कि ‘‘यदि कोई रोके तो उसके खिलाफ दण्डात्मक कार्यवही की जाए’’ के निर्देश भी दे दिए । लखनऊ खंडपीठ ने भी इतने ही सख्त लहजे में ताजमहल को लेकर दायर की गई याचिका पर याचिकाकर्ता को फटकार लगा दी । अध्ययन करो, पीएचडी करो शोध करो जैसे लहजे में बता दिया कि कोर्ट को कुछ भी विषय को लेकर याचिका दाखिल करना पसंद नहीं है । चिन्तन करने का समय है । सारा देश केवल ऐसे विवादों के भरोस नही रह सका । कुतुब मीनार को विष्ण््राु स्तंभ करने का नया विवाद जन्म ले रहा है । अब चिनतन की आवश्यकता तो है ही । बढ़ती महगाई ने भी आम आदमी को चिन्तित कर रखा है । देखते ही देखते दाम आम आदमी की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं । कोरोनाकाल की आर्थिक मंदी से जूझ रहे आम व्यक्ति को महगंाई ने और परेशान कर दिया है । लगभग हर वस्तु महंगी हो चुकी है । दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं का महंगा होना अखरने लगा है । गैस रसोई के दाम इतने बढ़ गए है ेिक अब नये विकल्प के बारे में सोचा जाने लगा हे । पहले तो वो माटी के चूल्हा पर जलाऊ लकड़ी का उपयोग कर खाना पका ही लेता था पर अब न तो घरों में चूल्हा रहे और न ही लकड़ी की उपलब्धता । उसके पास एक ही विकल्प है गैस । पर महंगी गैस खरी लो तो उसमें पकाने के लिए महंगा होते खाने के सामान को खरीदने की औकात नहीं रह जाती । सरकार ने गरीबों को राशन तो उपलध करा दिया और पकाने के लिए उज्जवला योजना से गैस भी दे दी पर उस गैस को भरवाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पा रहा है । उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें दिखाई देने लगी हैं । वैसे भी करोड़ों युवा रोजगी विहीन हैं । हर साल लाखों बच्चे अपनी उच्च् शिक्षा ग्रहण कर बेरोजगारी की लाइन में खड़े हो जाते हैं । डिग्री लेने का उत्साह शनैः-शैनः उदासी में बदलता जाता है । युवा वरिष्ठ युवा में बदल जाते हैं और कनिष्ठ युवा वरिष्ठ होने की कतार में खड़े हो जाते हैं । रोजगार है ही नहीं फिर युवा किस उम्मीद से अपने दिन काटे । उसके माथे पर भी चिन्ता की लकीरें हैं जिन्हें कोई नहीं देख पा रहा है या देखकर भी अनदेखा कर रहा है । सरकार के पास कोई उत्तर नहीं है और न ही कोई समाधान । यूक्रेनवासी भी चिन्तत हैं । उड़ते हैलीकाफटर और बरसते बमों के साथ उनके दिना की शुरूआत होती है और खीख-पुकार के शोरगुल मे दिन व्यतीत होता है । युद्ध लम्बा खिंचता जा रहा है । कहां तो कयास लगाए जा रहे थे कि रूस बस कुछ ही दिनों में यूक्रेन को बरबाद कर विजय परचम लहरा देगा पर ऐसा नहीं हुआ । चिन्तत तो रूस भी होगा और वहां के राष्ट्रपति पुतिन भी । उनके लिए यह युद्ध अब कठिनाई और बदनामी दोनों पैदा कर रहा है । यूक्रेन को बाहरी ताकतों से मिल रही मदद ने ही युद्ध को इतना लम्बा खींच दिया है वरना यह तो सच है ही कि रूस की ताकत के आगे यूक्रेन की ताकत बहुत कम है । सभी की निगाहें इस युद्ध के अंत की ओर लगी हैं ।

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